भारत बंद के ऐलान से राजनीति के चक्रव्यूह में फंस गए किसान।
कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमा पर पिछले 12 दिनों से मोर्चा खोले बैठे किसान आखिरकार राजनीति की चपेट में आ ही गए। दरअसल भारत बंद का ऐलान ही उन्हें राजनीति के चक्रव्यूह में घसीट लाया आया है और चाहे अनचाहे अब आंदोलन की कमान राजनेताओं के हाथ चली गई है ऐसे में किसानों के लिए सहानुभूति का कवच भी टूट जाए तो आश्चर्य नहीं। रही सही कसर असामाजिक तत्वों की मौजूदगी ने पूरी कर दी है।
किसान आंदोलन की पहली चिंगारी पंजाब सरकार ने ही जलाई थी लेकिन, उनका खुद का ही हाथ जलने लगा जब विपक्षी अकाली दल ने इसे लपक लिया और उसके बाद किसानों की आड़ में सियासी बढ़त बनाने की कोशिशें तेज हो गई। किसानों को दिल्ली की सीमा तक पहुंचा कर इसे और बड़ा कर दिया गया और पूरी तरह केंद्र सरकार के खिलाफ एक अभियान छेड़ दिया गया। इसके पीछे भी सियासत तब सामने आई, जब किसान संगठनों ने समस्याओं के निपटारे की बजाए सीधे तीनों कानूनों को निरस्त करने की अड़ियल जिद्दी दिखाई, हालांकि इस आंदोलन में एक चतुराई भी दिखाई गई जब सीधे किसी भी दल या नेता को इसमें शामिल नहीं होने दिया गया, यही कारण था कि कठिनाइयों या असहमति के बावजूद इस आंदोलन को सहानुभूति मिलती रही सरकार भी बहुत संवेदनशीलता के साथ बातचीत को मजबूर हुई भारत बंद का फैसला इस मुहिम की हवा निकाल सकता है, असर पहले दिन से ही दिखना शुरू हो गया जब राजनीतिक दलों के नेताओं ने कमान हाथ में लेनी शुरू कर दी पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से आगे बढ़ने की फिराक में अकाली दल ने तृणमूल कांग्रेस व शिवसेना को जोड़ने का श्रेय लिया तो कृषि सुधार की बात करती रही कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने भी तीनों कानून वापस लेने की मांग कर दी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल किसानों के लिए व्यवस्था देखने सिंधु बॉर्डर तक पहुंच गए। सपा मुखिया अखिलेश यादव कन्नौज कूच के लिए निकल पड़े, लेकिन धारा 144 तोड़ने के आरोप में हिरासत में ले लिए गए और बाद में छोड़ दिए गए। आज भारत बंद के दिन इन राजनीतिक दलों ने कुछ बड़े नेता जुबानी समर्थन देते हुए चर्चा में रहेंगे और उनके कार्यकर्ता कानून व्यवस्था सुनिश्चित करते पुलिसकर्मियों के वाटर कैनन के शिकार हो रहे होंगे या फिर हिरासत में लेने के बाद मुक्त होकर घर लौट चुके होंगे कुछ उसी तरह जैसे सोमवार को बंगाल में भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ हुआ था यह बताना बहुत मुश्किल है कि इसमें वह सच्चे किसान कहां होंगे जो कृषि कानून से होने वाले किसी नुकसान से आशंकित हैं।
एक राष्ट्रीय अखबार में प्रकाशित खबर के अनुसार यह रिपोर्ट