गरीब मजदूरों के रूप में सड़कों पर दिखी देश की स्याह तस्वीर।
गरीब और मजदूर के उत्थान के लिए अभी तक की योजनाएं साबित हुई ऊंट के मुंह में जीरा।
योजनाओं में बदलाव वक्त की जरूरत। - कर्मवीर नागर प्रमुख
देश की आजादी से पूर्व सुई जैसी छोटी चीज के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहने वाले देश में हवाई जहाज तक बनाए जाने का प्रारंभ होने और पृथ्वी से चांद और मंगल ग्रह तक पहुंचने की उड़ान जैसे सरकारी प्रयासों के आधार पर इस बात से तो इंकार नहीं किया जा सकता कि देश की आजादी के बाद इस देश में कुछ नहीं हुआ। लेकिन इस बात को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि इस देश को यहां तक लाने में जिस गरीब मजदूर तबके का अहम रोल इमारत की नींव की ईंट के रूप में रहा है उसके विकास और उत्थान के विषय में जो भी कुछ हुआ वह नाकाफी है। आज उद्योगों को चलाने से लेकर हर क्षेत्र में काम करने वाले इस मजदूर तबके की टीवी चैनल्स पर दिख रही तस्वीरें विचलित कर देने वाली हैं। गरीब मजदूरों की इन तस्वीरों ने सियासत की आंखों पर पड़े उस नकाब को हटा दिया है जिस नकाब को अनदेखा करते हुए हम विश्व महाशक्ति बनने का सपना देख रहे हैं। कोरोना संकट ने मजदूरों के रूप में भारत का स्याह चेहरा देश के नीति नियंताओं और देश की जनता को दिखा दिया है। आज तक की सभी सरकारें जिस गरीब और मजदूर के उत्थान की योजनाएं बनाने का दावा करती नहीं थकती थी। लॉक डाउन के दौरान भीषण गर्मी में भूखे प्यासे, छोटे-छोटे बच्चों को लादे, सड़कों पर नंगे पैर सैकड़ों मील का सफर तय करके मंजिल तक पहुंचने की कोशिश में इस देश की गरीबी का मजदूर रूपी वीभत्स चेहरा देखने को मिल रहा है।
शायद मजहब से दूर और मजे से दूर रोजी रोटी के लिए मजबूर इस गरीब का नाम मजदूर किसी ने बड़े सोच समझ के रखा होगा। मजदूर के रूप में यह भारत देश की गरीबी का वही चेहरा है जिसको गरीबी रेखा से ऊपर उठाने के लिए देश का योजना आयोग और प्रदेश का प्रशासनिक अमला आज तक आंकड़ों में बाजीगरी करके रातों-रात गरीबी रेखा से ऊपर पहुंचाने का काम करता रहा। जिसको आवास निर्माण और अन्य योजनाओं के रूप में मिलने वाली सहायता धनराशि में भी बंदरबांट होती है। जो रोजी-रोटी की तलाश में आए दिन रैन बसेरा बदलने के कारण बच्चों को सरकारी स्कूल में भी नहीं भेज पाता है। जो सूर्य की किरणों के आगमन के साथ पेट की भूख मिटाने की खातिर रोजगार की तलाश में निकलता है और शाम को घोसले में आकर निढाल होकर पड़ जाता है। जो दिन भर काम करता है और जिस की मेहनत का दो तिहाई हिस्सा कोई और ही चट कर जाता है। यह वही गरीब मजदूर है जो काम तो यह करता है लेकिन रोजगार देने वाले इसके नाम का इपीएफ ईएसआई जैसी सुविधाओं का लाभ किसी और को देते हैं। यह वही गरीब मजदूर है जो काम करते वक्त हुई दुर्घटना में जान गंवा देता है और बाद में गरीब परिवार को चंद रुपए में मौत का सौदा करने के लिए परिवार की गरीबी मजबूर कर देती है। यह वही गरीब मजदूर है जो पेट की खातिर नेताओं की रैलियों में धक्का खाने के लिए मजबूर होता है जिसका श्रेय कोई और लेता है। यह वही गरीब मजदूर है जिसका इस देश की तकदीर के निर्माण में तो बहुत बड़ा हाथ है लेकिन जिसकी तकदीर के निर्माण की योजना का निर्माण किसी और के हाथ में है।
यही इस गरीब मजदूर से जुड़े सच्चाई बयां करने वाले वास्तविक पहलू है जिनकी वजह से देश की आजादी से अब तक जवान, किसान और मजदूर का नारा देने वाली सत्ता और सरकारें 73 वर्षों में भी इनके हालात नहीं सुधार पाए । हम इसी गरीब पर तोहमत लगाते हैं कि लॉक डाउन खुलते ही शराब की दुकानों पर इनकी लंबी कतारें देखी गई, नोटबंदी के वक्त बैंक में लंबी कतारों में भी इन्हीं को देखा गया। लेकिन शायद हमने इन कतारों में चंद पैसों की खातिर खड़े इन गरीब चेहरों के पीछे छिपे उन अमीरों की तस्वीर नहीं देखी, जिनके चेहरों को बेनकाब होने से बचाव में यह गरीब बदनाम होते नजर आए हैं। हम इन पर यह भी तोहमत मंढते रहे हैं कि यह निजी स्वार्थ के खातिर अपना कीमती वोट किसी ना काबिल उम्मीदवार को भी दे देते हैं, जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए उचित नहीं। ऐसे एक दो नहीं बल्कि अनेकों उदाहरण है जब हर तोहमत का शिकार यही तबका होता है। कहावत है कि मरता क्या नहीं करता इसलिए इस गरीब पर तोहमत लगाने से पहले हमें सच्चाई छुपाने के लिए डाले गए पर्दे को हटाना होगा। रोजी रोटी और भरपेट गुजारे के लिए सड़क किनारे और स्लम बस्तियों में रहने के लिए मजबूर इस गरीब मजदूर ने इसको रोना संकट के दौरान मजबूरी में जब अपने प्रदेश जाने की राह पकड़ी तो गरीब मजदूरों के लिए बनी योजनाओं और की गई घोषणाओं की सच्चाई से मानो नकाब हट गया। धन्यवाद करना चाहिए मीडिया रूपी चौथे स्तंभ का, जिसने लंबे अरसे बाद देश की सच्ची तस्वीर और किसी अच्छे मुद्दे को दिखा कर देशहित में अच्छा काम किया है। लेकिन मीडिया से अनुरोध भी कि देश की इस सच्ची तस्वीर की रंगत बदलने तक इसे खबरों की सुर्खियां बनाकर रखा जाए। ताकि देश और प्रदेश की सरकारें इस गरीब के चेहरे की रंगत को बदलने के लिए कुछ कारगर कदम उठा सकें। हम कितना भी विश्व गुरु और विश्व महाशक्ति बनने का दावा करें लेकिन जब तक देश के इस गरीब मजदूर के चेहरे की रंगत नहीं बदलेगी तब तक विश्व शक्ति बनने का सपना देखना कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं। केवल खाने के खर्च के आधार पर बनाई गई गरीबी की परिभाषा को बदलना होगा। गरीबी रेखा के तय प्रावधानों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में ₹40 हजार 80 वार्षिक यानी ₹166.50 रोजाना कमाने वाला व्यक्ति और शहरी क्षेत्र में ₹60 हजार सालाना कमाने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे होगा। दूसरी तरफ नीति नियंताओं को सोचना होगा कि बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूलों में ₹50 हजार मासिक फीस जमा कराने की तुलना में यह आंकड़े कितने सार्थक प्रतीत होते हैं ऐसे में ₹48080 सालाना कमाई के दायरे में गरीबी को सीमित करेंगे तो आजादी से पहले और आजादी के बाद की तस्वीरों में कभी कोई अंतर नहीं आने वाला है। जब तक इन गरीबों की खाने, रहने और बच्चों की शिक्षा का खर्च जोड़कर आवश्यक आवश्यकता के आधार पर गरीबी की नई परिभाषा का प्रारूप तैयार नहीं किया जाएगा तब तक गरीबी उन्मूलन जैसी योजनाओं की सफलता को लेकर अपनी पीठ थपथपाना बेमानी होगी । देश के मजदूरों के लिए बनाए गए "लेबर लॉज" का सख्ती से पालन कराने के लिए कानून में सख्त प्रावधान करने होंगे ताकि इन गरीब मजदूरों की मेहनत की कमाई का हिस्सा कोई और ना चट कर सके, इनको मिलने वाली ईपीएफ और ईएसआई की सुविधाओं का लाभ कोई और ना ले सके। ताकि इनको सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाली किसी भी सहायता में बंदरबांट बंद हो सके। जन धन बीमा योजना की तरह इस तबके के लिए राष्ट्रीय आपदा बीमा योजना के नियमों में ऐसे बदलाव किए जाएं जिसके तहत ऐसे वक्त भोजन और इलाज की मुफ्त गारंटीड व्यवस्था हो सके। सड़क से रोजाना दिहाड़ी मजदूरी करने वाले श्रमिकों का प्रतिदिन के हिसाब से ऑनलाइन अनिवार्य बीमा का प्रावधान हो ताकि काम करते वक्त हुई किसी दुर्घटना वश शरीर का अंग अथवा जान गवाने वाले असंगठित क्षेत्र के गरीब दिहाड़ी मजदूरों के बेसहारा परिवार को आर्थिक सहायता मिल सके। हालांकि गरीब मजदूरों के हित में ऐसे बहुत से कानून सरकार द्वारा बनाए हुए भी हैं लेकिन लचीलापन होने व सख्ती से पालन न होने की वजह से कानूनी रूप से मिलने वाली सुविधाओं का लाभ पाने से इन मजदूरों को आमतौर पर वंचित देखा गया है। इसीलिए एक बार वर्ल्ड बैंक ने भी अपनी रिपोर्ट में इस तरफ इशारा करते हुए कहा था कि भारत में भ्रष्ट एवं प्रभाव हीन प्रबंधन की वजह से गरीबों के लिए बनी योजनाएं सफल नहीं हो सकी है। इसलिए देश की सरकार को भारत के इस स्याह चेहरे को उज्जवल बनाने के लिए सख्त और कारगर कदम उठाने ही होंगे। वर्ल्ड बैंक द्वारा की गई टिप्पणी पर गौर फरमाना होगा। खास तौर पर यह जिम्मेदारी 5 साल के लिए चुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों की वनस्पति उस प्रशासनिक अमले को ज्यादा उठानी होगी जिनको सरकारी सेवाओं में काम करने का लंबा अनुभव है।


